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गुम होती जा रही ढ़ोलक की थाप पर फगुआ के गीतों की बहार



लाइव खगड़िया (मुकेश कुमार मिश्र) : राग, रंग एवं उत्सव का त्योहार होली की बयार बहने लगी है. जिले के कुछ गांवों में आज भी होली की पुरानी परंपरा कायम है.बदलते वक्त के साथ भले ही होली के अवसर पर ढोलक की थाप इक्का-दुक्का जगहों पर ही सुनाई देती हो. लेकिन यह परंपरा आज भी जिले में जीवंत है और ऐसे जगहों पर अब ढोलक की थाप पर फगुआ गीतों की बयार वहनें लगी है.

काहू काहू के हाथ में रंग पिचकारी 

कोई लगा के गुलाल भागे।। भर फागुन।।

चाहे कोई पहिने सफेद नवा साड़ी 

नव रंग डाल चहेरा बिगाड़ डारे भर फागुन 

होली से खेलत है नंदलाल बिरज में।

केहू के हाथ में रंग पिचकारी

केहू के हाथ में गुलाल बिरज में।।

राधा के हाथ में रंग पिचकारी

कान्हा के हाथ में गुलाल।

बिरज में होली खेलत हैं नंदलाल।”

जोगिरा सारा रा रा…

कुछ ऐसे ही गीतों के साथ लोगों पर फगुआ का रंग चढ चुका है. पंचतत्व अपना प्रकोप छोड़कर सुहावने रूप में प्रकट हो चुका है. जल, वायु, धरती, आकाश और अग्नि सभी अपना मोहक रूप दिखा रहे हैं. आकाश स्वच्छ है, वायु सुहावनी लगती है, अग्नि (सूर्य) रुचिकर है तो जल पीयूष के समान सुखदाता और धरती उसका तो कहना ही क्या वह तो मानों साकार सौंदर्य का दर्शन कराने वाली प्रतीत हो रही है. ठंड से ठिठुरे विहंग अब उड़ने का बहाना ढूंढने लगे हैं तो किसान लहलहाती फसलों को देखकर अघा नहीं रहे हैं और मन ही मन मन मुस्कुरा रहे हैं. पेड़ों में कोपलें निकलने के लिए उतावला है. आम के पेड़ बौरों से लद गए हैं. उसकी खुशबू चाहूओर फैल गई है. धनी जहां प्रकृति के नव-सौंदर्य को देखने की लालसा प्रकट करने लगे हैं तो निर्धन शिशिर की प्रताड़ना से मुक्त होने से सुख की अनुभूति करने लगे हैं. श्रावण की पनपी हरियाली शरद के बाद हेमन्त और शिशिर में वृद्धा के समान हो गई थी. लेकिन वसंत अब उसका सौन्दर्य लौटा रहा है. मौसम में मादकता छा गई हैं.जी हां…प्राकृति अपना काम ससमय कर रही है. लेकिन लोग अपनी पुरानी परंपरा को भूल रहे हैं. 


एक वो दौर था जब वसंत पंचमी के बाद गांव में होली तक ढोलक की थाप पर गीत सुनाई देती थी. लेकिन अब ढोलक की थाप धीरे-धीरे गुम होने लगी हैं.गीतों के माध्यम से मन की भावनाओं को प्रकट करने का सिलसिला भी थमने लगा है. मनुष्य जिस परिवेश या वातावरण में रहता है उसी वातावरण से प्रभावित होकर गीत गाता है और उस गीत पर आंचलिक भाव,व्यवहार एवं भाषाओं का पूर्ण रूपेण प्रभाव रहता है.जो आमतौर पर लोकगीत के माध्यम से ढोलक की थाप पर वसंत ऋतु में होली के आगमन पर सुनाई देता था.लेकिन नए पीढ़ी के लोग पुरानी परंपरा को भूलने लगे हैं.

आधुनिकता की इस चकाचौंध में भावपूर्ण भक्ति संगीत ही नहीं लोग होली की कई परंपरा को भी छोड़ने लगे हैं. एक समय भी था जब गांव के लोग एकत्रित होकर महिनों तक फगुआ गीत में डूबे रहते थे.लेकिन अब ऐसा दिखाई नहीं देता है.बावजूद इसके आज भी इक्का-दुक्का ही सही गांव में यह परंपरा देखने को मिल जा रही है.इस दौरान ढोलक की थाप पर लोग थिरकने पर मजबूर हो जा रहे है.

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