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गठबंधनों में उलझे गणित का हल निकाल लेना त्रिमूर्ति के लिए बड़ी चुनौती




लाइव खगड़िया (मनीष कुमार) : विभिन्न मुद्दों को लेकर संघर्ष से चर्चाओं में आये जिले के तीन युवा इस बार चुनावी मैदान में ताल ठोक रहे हैं. एक वो वक्त भी रहा था जब विभिन्न मांगों को लेकर किये जा रहे अनशन के दौरान इनसभी को जिले का अन्ना भी कहा जाने लगा था. हम बात कर रहे हैं सामाजिक कार्यकर्ता नागेन्द्र सिंह त्यागी, ई. धर्मेन्द्र एवं बाबूलाल शौर्य की. इस बार के विधानसभा चुनाव में तीनों की राहें अलग हैं, लेकिन मंजिले एक ही है और वो है विधायकी का. उल्लेखनीय है कि नागेन्द्र सिंह त्यागी जिले के बेलदौर विधानसभा क्षेत्र से जाप की टिकट पर अपनी किस्मत आजमा रहे हैं. इसी तरह ई. धर्मेन्द्र खगड़िया विधानसभा क्षेत्र से निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनावी मैदान में हैं. जबकि बाबूलाल शौर्य परबत्ता विधानसभा क्षेत्र से लोजपा की टिकट पर ताल ठोक रहे हैं. हलांकि इसके पूर्व भी नागेन्द्र सिंह त्यागी व ई. धर्मेन्द्र विगत के विभिन्न चुनावों में अपनी-अपनी किस्मत आजमा चुके हैं. लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली थी. जबकि बाबूलाल शौर्य पहली बार चुनाव मैदान में हैं. 


नागेन्द्र सिंह त्यागी

जिले में जब भी समाज की समस्याओं को लेकर संघर्ष की बात आती है तो चर्चित सामाजिक कार्यकर्ता नागेन्द्र सिंह त्यागी का नाम कद्र से लिया जाता रहा है. हलांकि वो जाप सुप्रीमो पप्पू यादव के संगठन युवा शक्ति के प्रदेश अध्यक्ष भी हैं. लेकिन सामाजिक गतिविधियों की वजह से विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं के द्वारा भी उन्हें एक अलग सम्मान दिया जाता रहा है. विभिन्न समस्याओं को लेकर आंदोलन व अनशन का उनके नाम एक अलग ही रिकॉर्ड रहा है. लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि जब उन्होंने चुनावी राजनीति में अपनी किस्मत आजमाने की कोशिश की है तो उन्हें सफलता नहीं मिल सकी है. वर्ष 2015 के चुनाव में उन्होंने जिले के बेलदौर विधान सभा क्षेत्र से जाप उम्मीदवार के रूप में चुनावी मैदान में उतर कर मतदाताओं को एक विकल्प दिया था. लेकिन उन्हें महज 4135 मतों से ही संतोष करना पड़ा था. बहरहाल एक बार फिर वे बेलदौर से ही जाप के टिकट पर ही चुनावी मैदान में हैं और देखना दीगर होगा कि वे इस चुनाव में जिले के राजनीति में नये द्वार खोल पाने में कितना सफल रहते हैं.

ई. धर्मेन्द्र

जिले के चुनावी राजनीति में जमीन तालाशने की कोशिश ई.धर्मेन्द्र की वर्षों से रही है. लेकिन 2014 के संसदीय चुनाव के बाद से सामाजिक कार्यकर्ता ई.धर्मेन्द्र सक्रिय राजनीति से एक दूरी बना ली थी. 2014 के लोकसभा चुनाव में खगड़िया सीट से उनके भाई डा.विवेकानन्द आप के प्रत्याशी रहे थे और उस चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पडा था. जबकि 2015 के विधानसभा चुनाव में भी ई. धर्मेन्द्र सक्रिय नहीं दिखें थे. जबकि इसके पूर्व 2010 के चुनाव में ई. धर्मेन्द्र एक निर्दलिय उम्मीदवार के तौर पर खगड़िया विधानसभा क्षेत्र से चुनावी मैदान में उतरे थे और वे 15237 मत प्राप्त कर तीसरे स्थान पर रहे थे. जिसके उपरांत वे भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना के मुहिम में शामिल हो गये. इस बीच आम आदमी पार्टी के गठन के बाद तक वो राजनीति में सक्रिय रहे. लेकिन पार्टी के वरीय नेताओं की आपसी फूट के साथ ही उन्होंने खुद को आप से अलग कर लिया था. यह वर्ष 2015 का वक्त था और इसके साथ ही ई. धर्मेन्द्र जिले की राजनीतिक पटल से लगभग गायब से हो गये थे. एक लंबे इंतजार के बाद वर्ष 2018 में उन्होंने उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी रालोसपा की सदस्यता ग्रहण कर ली. लेकिन गठबंधन के राजनीति के दौर में चुनाव मैदान में पहुंचने की धूमिल होती संभावनाओं के बीच उन्होंने खुद को निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर पेश करने का फैसला किया.




वर्ष 2019 में ‘जय खगड़िया’ के बैनर तले जिले में सरकारी मेडिकल कॉलेज की स्थापना के लिए आंदोलन की आगाज किया गया और इस आंदोलन के साथ ही ई. धर्मेन्द्र एक बार फिर राजनीति में सक्रिय हो गये. बहारहाल देखना दिलचस्प होगा कि गठबंधन की राजनीति के दौर में एक निर्दलीय प्रत्याशी के तौर वे सफलता के किस मुकाम को छू पाते हैं.

बाबूलाल शौर्य

भाजपा के जिला महामंत्री बाबूलाल शौर्य ने एनडीए के घटक दलों के बीच भाजपा कोटो में सीट नहीं आने की स्थिति में आक्रमक तेबर अपनाते हुए परबत्ता विधानसभा सीट से लोजपा प्रत्याशी के तौर पर चुनाव मैदान में उतरे हैं. हलांकि उनके लिए यह फैसला बहुत आसान भी नहीं था. बाबूलाल शौर्य भी विभिन्र मुद्दों को लेकर संघर्ष के बल पर सुर्खियों में आये थे. उनकी छवि पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता के तौर पर रही थी और पार्टी के विभिन्न कार्यक्रमों में वे काफी सक्रिय रहते थे. बताया जाता है कि वे छात्र जीवन से ही संगठन से जुड़े हुए थे. हाल के दिनों में संगठन के स्थानीय राजनीति में उन्होंने अपनी पैठ बना ली थी. लेकिन राजनीतिक महत्वाकांक्षा के बीच गठबंधन की राजनीति के दौर में उन्होंंने अपनी राहें जुदा कर ली है. माना जा रहा है बाबूलाल शौर्य के राजनीतिक जीवन का यह एक अहम फैसला है, जो कि उनके भविष्य की राजनीति का दशा व दिशा तय कर सकता है.

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