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पुष्पमित्र की नई किताब ‘रुकतापुर’ में ‘फरकिया’ की भी चर्चाएं




लाइव खगड़िया (मनीष कुमार) : जनपक्षीय पत्रकारिता ने नाता रखने वाले युवा लेखक पुष्पमित्र की नई किताब ‘रुकतापुर’ काफी चर्चाओं में है. राजकमल प्रकाशन की यह किताब 232 पृष्ठों की है. जिसमें ‘जा झार के, मगर कैसे’, ‘घोघो रानी, कितना पानी’, ‘दूध ना बताशा, बौआ चले अकासा’, जैसे उप शीर्षक के माध्यम से बिहार के नीति निर्माताओं की 73 वर्षों की कामयाबी और नाकामी का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया है. इस किताब में फरकिया के नाम से जाना जाने वाला ‘खगड़िया’ की भी चर्चाएं हैं. ‘रूकता’ का मतलब तो समझ ही रहें होंगे आप…जी बिल्कुल, जहां थम सी जाये कुछ. आईये एक नजर डालते हैं ‘रूकतापुर’ किताब के उस अंश पर जहां फरकिया का जिक्र हैं…

साल 2013, जब मैंने सीएसडीएस के मीडिया फेलोशिप के लिए खगड़िया जिले का फरकिया इलाका चुना. पांच नदियों की गोद में बसे इस इलाके में न सरकार की सड़क पहुंची है, न उसका कानून. उस इलाके के बारे में आप किसी स्थानीय जानकार से पूछेंगे तो वह आपको राजा टोडरमल का किस्सा सुनाएगा.बड़े गर्व से कहेगा… 


…जानते हैं, अकबर के नवरत्नों में से एक टोडरमल पूरे हिन्दुस्तान का लैंड सर्वे करने निकले थे. मगर हमारे इलाके में आकर फंस गए. क्योंकि यहां हर दो किमी. पर एक नदी थी और ये नदियां भी बहुत जल्दी रास्ता बदल लेती थीं. वे यहां महीनों बैठे रहे, मगर सर्वे नहीं करवा पाए. फिर नक्शे में इस इलाके को घेरकर उन्होंने लिख दिया. फरक किया मतलब अलग कर दिया. और यह फरक किया ही अब फरकिया हो गया है.

और इसका उदाहरण मुझे दिलीप राम के पास मिला.

खगड़िया जंक्शन के आखिरी प्लेटफार्म के बाहरी छोर से सटी उनकी एक छोटी सी चाय की गुमटी थी. मिट्टी के दो-तीन चूल्हे थे जिन पर कुछ बरतन रखे थे, शीशे के दो-चार बोइयाम में कुछ लोकल बेकरी के बिस्किट थे, एक जला हुआ सॉसपैन, कुछ अधिक मैली छन्नी, आठ-दस शीशे के गिलास और चम्मच.अन्दर एक चौकी थी, जिस पर काठ का बना एक गल्ला रखा था और ग्राहकों को बैठने के लिए दो बेंच थीं. दोपहर का वक्त था और एक भी ग्राहक नहीं था. खुद दिलीप राम भी वहां से गायब थे. सोच कर हैरत हुई कि स्थानीय समाजसेवी प्रेम वर्मा ने मुझे इसी चायवाले से मिलने के लिए भेजा है. उनका कहना था कि इस चायवाले का पूरे खगड़िया शहर की जमीन पर दावा है, वह कहता है कि यह शहर उसकी पुश्तैनी जमीन पर बसा है. इतना ही नहीं उसका दावा रेलवे की जमीन पर भी है. बेगूसराय जिले के बछवाड़ा से लेकर कटिहार जिले के कुरसैला तक की जमीन जिससे होकर रेल की पटरी गुजरती है, उसका कहना था वह उसकी जमीन थी. रेलवे ने और बिहार सरकार ने उसकी पुश्तैनी जमीन तो ले ली मगर उसे एक पैसे का मुआवजा नहीं दिया.

प्रेम वर्मा जी ने जब मुझे यह सब बताया था तो मेरी प्रतिक्रिया थी कि वह कोई मनोविकार ग्रस्त व्यक्ति होगा, जिसे भ्रम की दुनिया में जीने की बीमारी होगी. मगर वर्मा जी ने मेरी इस टिप्पणी पर कहा कि नहीं भाई, ऐसा नहीं है. उसने बिहार सरकार और रेलवे के खिलाफ मुकदमा कर रखा है और दस-पन्द्रह साल से उसका मुकदमा खगड़िया जिला एवं सत्र न्यायालय में चल रहा है. जाहिर सी बात है, उसके मुकदमे में थोड़ा-बहुत दम तो होगा, वरना जज इस तरह के मुकदमों को एंटरटेन कहां करते हैं.

थोड़ी देर ढूंढने पर दिलीप राम मिल गए. वे पास में ही एक जगह सो रहे थे. मैंने जगाया और उन्हें उनकी दुकान तक लेकर आया. पहले उन्होंने मुझे अपनी दुकान की खास चाय पिलाई, फिर अपनी कहानी शुरू की-

मेरे परदादा का नाम गैनू महरा था.वे पूर्णिया के बनैली स्टेट में सिपाही थे.एक बार मेरे परदादा ने स्टेट के राजा की किसी संकट में रक्षा की थी, तब उनकी सेवा से खुश होकर बनैली स्टेट वालों ने उनको पूरे फरकिया की जमीन जोतने के लिए दे दी थी. उस वक्त यह पूरा इलाका पानी में डूबा रहता था. यहां की जमीन का कोई मोल नहीं था.मेरे पूर्वज यहां आए और जितनी जमीन पर मुमकिन हुआ खेती करने लगे.

दिलीप राम ने जमीन का एक कागज भी दिखाया, जिसे देखकर मैं कुछ समझ नहीं सका. उन्होंने कुछ तौजी नम्बर बताए, जिन्हें मैंने बस रेफरेंस की खातिर नोट कर लिया. उन्होंने बताया कि 1927 में रेलवे ने और 1942 में बिहार सरकार ने उनकी जमीनें एक्वायर कर ली हैं, तब उनके पूर्वजों को मालूम नहीं था कि इसके बदले मुआवजा भी मिलता है.

फिर उन्होंने बताया कि 1992 में उन्होंने मुकदमा किया, जो 2013 में खारिज हो गया. मतलब समझिए कि खगड़िया की अदालत में 21 साल तक उनका मुकदमा चला. बाद में मैंने यह बात खगड़िया के डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में भी जाकर कन्फर्म की. बताया गया कि यह मुकदमा इसलिए खारिज हो गया, क्योंकि सरकार के पास इस बात का कोई कागजी सुबूत नहीं था कि इन जमीनों का असली मालिक कौन है. दरअसल फरकिया के इलाके में जमीन का नक्शा कभी ठीक से तैयार ही नहीं हुआ और न ही दस्तावेजीकरण हुआ. पहले खगड़िया खुद मुंगेर जिले का हिस्सा था, सो पुराने कागजात मुंगेर में ही हैं, वे बाढ़ में बह गए या बचे हैं, यह कहना मुश्किल है.

यह ट्रैजडी सिर्फ गैनू महरा के वंशज दिलीप राम की नहीं बल्कि पूरे फरकिया इलाके की है. मुझे अब भी लगता है, दिलीप राम ने सनक में आकर ही मुकदमा किया होगा. इस इलाके में उनके पूर्वजों की दावेदारी का कोई प्रामाणिक इतिहास नहीं मिलता. मगर यह कहानी कोसी, बागमती और दूसरी कई नदियों के इलाके के लैंड रिकाॅर्ड की स्थिति का राज तो खोलती ही है. यानी, जो नक्शा टोडरमल नहीं बना पाए, वह नक्शा आने वाले वक्त में भी ठीक से बन नहीं पाया.




बहरहाल उस ट्रिप में मेरा फरकिया के कई इलाकों में जाना हुआ. केन्द्रीय मंत्री रामविलास पासवान के पैतृक गांव शहरबन्नी भी गया, जो बदलाघाट-नगरपाड़ा तटबन्ध के भीतर बसा है. बदलाघाट-नगरपाड़ा तटबन्ध के बीच बसे दर्जनों गांवों के बीच शहरबन्नी की एक अनूठी पहचान है, वह यह कि उस गांव में एक सीमेंटेड सड़क है और कुछ पक्के मकान. यानी आप समझ लीजिए, इलाके के किसी भी दूसरे गांव तक पहुंचने के लिए पक्का रास्ता नहीं है, ईंट की सोलिंग भी नहीं. पगडंडियां हैं, नावें हैं और पैदल रास्ते हैं.

शहरबन्नी में भी सड़क इसलिए है, क्योंकि यह लगातार कई टर्म में केन्द्रीय मंत्री रहे देश के मशहूर राजनेता रामविलास पासवान का गांव है. वह भी इसलिए मुमकिन हुआ कि एक जमाने में पासवान जी खनन मंत्री हुआ करते थे और स्टील ऑथारिटी ऑफ इंडिया (सेल) इनके विभाग से गाइड होती थी. तब उन्होंने यह सड़क सेल पर दबाव डालकर उसके सीएसआर फंड से बनवा ली. दिलचस्प है कि सेल ने उस दौर में इनके गांव में एक भव्य रेस्ट हाउस भी बनवाया था. पता नहीं इस बियाबान में यह रेस्ट हाउस किसके लिए बनाया गया. आज भी उस रेस्ट हाउस का ताला तभी खुलता है, जब पासवान जी भूले-भटके तीन-चार साल में कभी अपने गांव पहुंचते हैं.

इस वीराने में तो प्रखंड स्तर के अधिकारी भी आने में हिचकते हैं, कभी आ गए तो पूरे साल हर आगंतुक को अपनी वीरता की कहानी सुनाते हैं. यहां नौकरी करने वाले मास्साब, एएनएम मैडम वगैरह छोटे कर्मचारियों की तो चांदी रहती है. महीने में एक बार आकर मुखिया से हाजिरी बनवा लेते हैं, कुछ चढ़ावा भी दे देते हैं, ताकि सैलरी बनती रहे. इस इलाके के एक अतिरिक्त स्वास्थ्य केन्द्र में तो मैंने खुद भूसा भरा हुआ देखा था. बाहर भैंसें बंधी थीं. कई सालों से वहां किसी डॉक्टर के दर्शन नहीं हुए थे, सो मरीज भी नहीं आते थे.

वैसे सेल ने पासवान जी के गांव का खूब खयाल रखा है, उनके माता-पिता का स्मारक भी बनवाया है. इन आलीशान भवनों के अलावा और उस गांव में सब कुछ कच्चा है. पासवान जी का अपना घर भी अति साधारण है, जहां उनकी पहली और कथित रूप से तलाकशुदा पत्नी राजकुमारी देवी अकेली रहती हैं.

मैं राजकुमारी देवी का आभारी हूं कि उन्होंने एक रात के लिए मुझे मेहमान बनाकर रखा.अपने हाथों से पकाकर खाना खिलाया. हालांकि वे इसके लिए बहुत उत्साहित नहीं थीं. सुबह जब मैं उस वीआईपी गांव में घूमने निकला तो पता चला कि वहां तब तक बिजली नहीं आई थी. जिन्हें बिजली के उपकरणों की जरूरत थी, वे सोलर पैनल का इस्तेमाल करते थे. गांव के स्कूल में गर्मियों की छुट्टी नहीं होती, बल्कि उसके बदले बाढ़ की छुट्टियां होती थीं. हर साल चार महीने के लिए इस गांव में चार से छह फुट पानी जमा हो जाता है. इस दौरान सड़कें डूब जाती हैं और सारा काम नावों से होता है. और नावें जैसे-तैसे बगैर किसी सुरक्षा इन्तजाम के चलती हैं. पड़ोस के गांव फुलतोड़ा में 2010 में भीषण नौका दुर्घटना हुई थी, जिसमें 75 से अधिक लोगों की मौत हो गई. इसके बावजूद बारिश के महीने में इनसान को शौच करने भी जाना हो तो नाव पर ही चढ़ना पड़ता है. स्कूल-काॅलेज, पढ़ाई-लिखाई सब बन्द. सिर्फ जरूरी काम निबटाए जाते हैं.

शहरबन्नी के तीन-चार किमी. आगे है, गुलरिया गांव. शहरबन्नी के बाद ही सड़कें खत्म हो जाती हैं. धूल में मोटरसाइकिल चलाते हुए हम मोहराघाट पहुंचे फिर वहां से नाव के सहारे उस पार. मोटरसाइकिल समेत. गुलरिया गांव की पहचान यह है कि भारत में चल रहे पल्स पोलियो अभियान के सिलसिले में दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति बिल गेट्स इस गांव आए थे. वह 2010 की बात है.

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