
प्रकाशन का बाट जोह रहा बाल्मीकि कुमार वत्स की रचनाएं
लाइव खगड़िया (मुकेश कुमार मिश्र) : जिले के परबत्ता प्रखंड के कबेला निवासी बाल्मीकि कुमार वत्स के द्वारा रचित कहानी व कविता जैसी रचनाएं समाज में फ़ैली कुरीतियों के खिलाफ जागरूकता का एक प्रयास है. साथ ही उनकी रचनाओं में गांव की पारंपरिक संस्कृति की झलक भी मिलती है. लेकिन आर्थिक तंगी के कारण उनकी रचनाएं डायरी में ही सिमट कर रह गई है और वह प्रकाशन का बाट जोह रहा है.
बाल्मीकि कुमार वत्स आचार्य की डिग्री प्राप्त कर संत कोलम्बस स्कूल कन्हैयाचक में शिक्षक पद पर कार्यरत हैं. उन्होंने एक सौ से अधिक कविता एवं कहानियां लिखी है. जो उनके डायरी में संग्रहित है. बचपन से हीे कहानी व कविता लिखने में रूचि रखने वाले बाल्मीकि कुमार वत्स का लेखन कार्य अनवरत जारी है. लेकिन उनकी कविता व कहानी का प्रकाशन नहीं होने का उन्हें मलाल है. उनकी चाहत है कि उनकी रचनाएं लोगों तक पहुंचे. लेकिन आर्थिक तंगी के कारण ऐसै संभव नहीं हो पा रहा है. बावजूद इसके उनकी कलम इस उम्मीद के साथ अनवरत चलती जा रही है कि एक न एक दिन उनकी रचनाएं प्रकाशित होगी.
बाल्मीकि कुमार ‘वत्स’ की रचना
सायकिल
गिन -गिन चलती टन-टन बोल
दो पहिये का बड़ा है मोल,
गिन-गिन चलती टन-टन बोल।
रोटी भात यह कभी न खाती,
घास भूसा का नाम न भाती,
डीजल पेट्रोल का कुछ न काम,
अकेले बैठो पाओ आराम,
तुरंत पहुँचना है तो पॉव दबाओ दिल खोल,
गिन-गिन चलती टन-टन बोल।
खाली सड़क की सीना चिड़ती ,
भीड़ -भाड़ में फुटपाथ से भिड़ती
लचक-लचक कर आगे बढ़ती
चौपहिया बेचारी भीड़ में कुढ़ती,
ठीक समय में काम पर जा जाउँ,
बड़े बड़े लोगो को ललचाऊ,
पूछे कोई कहूँ लाख टका मोल,
गिन-गिन चलती टन-टन बोल।
लाख दसियो में चौपहिया मिलती,
डीजल पेट्रोल भी खूब निगलती,
भीड़ -भाड़ में चल न पाती,
छेड़-छाड़ से निपट न पाती,
चौराहा पाकर खर्च में पड़ती,
चाय पान रोज है करती,
अवसर पाकर झटपट चलती, खतरा लेती मोल,
हन-हन चलती पों-पों बोल।
मुझे तो सिर्फ यही कहना है यारो,
आठ मील तक यदि चलना चाहो,
दोनों पाँव तब अपना लगाकर,
भेद- भाव अब आलस्य भगाकर,
डीजल पेट्रोल का बचत करना,
कृषक बनिज का मदद करना,
प्यारी सायकिल का यही है मोल,
गिन-गिन चलती टन-टन बोल।
कलम
कलम आज तू क्यों खड़ी हैं!!
कलम आज तू क्यों खड़ी है?
चुपचाप,जेब मे क्यो पड़ी है?
देख लोकतंत्र बदल गया है, भाई से भाई लड़ गया है,
बाप बेटे से अकड़ गया है, माँ बेटी से मुकड़ गई है।
तब भी कहते सब स्नेह झड़ी है।
कलम आज तू क्यों खड़ी है?
साधु दिखने वाले हत्या करते है
कर्णधार बनने वाले ईमान बेचते है
हरिश्चन्द्र कहलाने वाले झुठ बोलते है
स्वजन ही परिजन बनते जाते है।
क्या, तुझमे मसि नहीं पड़ी है?
कलम आज तू क्यों खड़ी है?
हर बच्चों में क्रोध भरी है,
गुरुजन में लोभ पड़ी है,
बहुधा जन में स्वार्थ भरी है,
उल्टे चाकर में शान भरी है।
सब देख तू क्यों गड़ी है?
चुपचाप जेब मे क्यो पड़ी है?
भाईचारा हट गया है
सत्य अहिंसा घट गया हूं,
अंग्रेजी नीति बढ़ गई है
तू भी मन-मन ललक पड़ी है।
क्या तुझमे सनक भरी है?
चुपचाप जेब मे क्यों पड़ी है।
जन-जन में फिर से,
बंधुत्व भाव अपनाना है,
बारह बरस से अधिक उम्र में,
कर्तव्य बोध जगाना है,
किशोर-किशोरी को मिलकर,
सत्य ज्ञान अपनाना है,
कहती कलम आज तभी,
साकार बापू का सपना है।
देख भारत से,
भारतीयता चल पड़ी है,
चुपचाप जेब मे,
इसलिए पड़ी है।