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कोरोना ने फीकी कर दी सतुआनी के सत्तू का स्वाद, जूड़शीतल का भी उल्लास नहीं




लाइव खगड़िया (मुकेश कुमार मिश्र)  : कोरोना महामारी के बीच सोमवार को बेहद ही सादगी से लोक पर्व सतुआनी मनाया जा रहा है. वैसे तो इस दिन गंगा स्नान कर नया मिट्टी का घडा, नए चने की सत्तू, आम का टिकोला व तार के पंखे आदि दान करने की परंपरा रही है. लेकिन लॉक डाउन की वजह से पौराणिक परंपरा निभाने का रश्म अधूरी रह गई. सतुआनी पर्व के अगले दिन यानी मंगलवार को जूड़शीतल पर्व मनाया जाना है. बैसाख मास के आगमन के अवसर पर  इस पर्व को मनाया जाता हैं. इस दिन नए चने की सत्तू व चटनी खाने की परंपरा रही है. जिसके उपरांत ही घर में भोजन बनाया जाता है और अगले दिन बासी भात व बड़ी खाये जाे का रिवाज रहा है. लेकिन इस वर्ष कोरोना संक्रमण को देखते हुए ताजा व गर्म भोजन करने की सलाह के बीच इस रिवाज से भी लोग तौबा कर दे तो कोई बड़ी बात नहीं होगी. 


वैसे बात यदि पर्व के पीछे का महत्व की करें तो यह एक तरह से गर्मी का सामना शीतलता से करने को निमित्त है. बैशाख का स्वागत गेहूं की नयी फसल से भी होता है. गर्मी और धूप की तपिश के अभिनन्दन एवं जीवन सुरक्षित करने का उद्देश्यों से भरा पर्व है. इस पर्व के माध्यम से पूर्वज के द्वारा जीवन को प्रकृति से जोड़ते हुए उसे मानवीय संवेदना प्रवाहित करने का प्रयास किया गया है. कहा जाता है कि जल ही जीवन है और यह ही संदेश दो दिनों का यह लोक पर्व देता है. 

सतुआनी पर्व के दूसरे दिन जूड़शीतल पर्व में जल्दी उठकर घर की बुजुर्ग महिलाएं सुबह जल्दी उठकर घर के सभी सदस्यों के सिर पर बासी पानी डालकर शीतलता का एहसास कराती है. साथ ही आंगन को पानी से सराबोर किया जाता है. इस दौरान धरती से उठती सोंधी गंध वातावरण को प्रफुल्लित बना देता है. आंगन के पौधे पानी के स्पर्श मात्र से झूम सा उठते हैं. तुलसी चौड़ा में भी मिट्टी का घड़ा टांग दिया जाता है और घड़ा के छोटे छेद से बूंद-बूंद कर जल जब तुलसी के पौधों को गिरता है तो प्रकृति के अनुपम छटा से रोम-रोम खिल उठता है.

पानी का बूंद-बूंद होता अमृत के समान

बैशाख की चिलचिलाती धूप में पौधे जल के लिए लालायित रहते हैं. पानी की एक-एक बूंद उनके लिए अमृत होता है. शायद यह ही कारण रहा है कि पूर्वजों ने इस पर्व का नाम जूडशीतल रखा हो. जिसमें पौधे को जड़ से ऊपर तक शीतल कर देने की कवायद होती है. अब भी गांव लोग इस पुरानी परंपरा को बरकरार रखकर आने वाले पीढ़ी को यह बताते हैं कि मानव जीवन को प्राकृतिक चीजों से प्रेम रखकर सुरक्षित रखा जा सकता है.

मिथिला पेंटिंग में भी दर्शाया गया है इस लोक पर्व को

मुक्ति झा का पेंटिंग की दुनिया में अपना एक अलग नाम है. वे मिथिला संस्कृति के समृद्ध विरासत को अगली पीढी तक पहुंचाने को कृतसंकल्पित हैं. इस क्रम में वे इन दिनो देश के विभिन्न शहरो एवं गांवो से जुडे  250 महिलाओं को ऑनलाइन मिथिला पेंटिंग सीखा रही हैं.  उन्होंने भी लोक पर्व को मिथिला पेंटिंग के माध्यम से दर्शाया है. साथ ही दरभंगा जिले के रामपुर गांव निवासी सीमा झा, मधुबनी जिले के  शिव नगर निवासी रीना झा, भागलपुर निवासी अपराजिता झा ने भी जूडशीतल पर्व की परंपरा को मिथिला पेंटिंग के माध्यम से दर्शाया है.

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