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नहाय-खाय के साथ लोक आस्था का चार दिवसीय महापर्व शुरू

लाइव खगड़िया (मुकेश कुमार मिश्र) : लोक आस्था का चार दिवसीय महपर्व छठ गुरुवार को नहाय-खाय के साथ आरंभ हो गया. सूर्योपासना के लिए प्रसिद्ध पर्व छठ पूजन सामग्री को लेकर बाजार सज चुका है और बाजारों में उमड़ी भीड़ इस पर्व के प्रति लोगों के आस्था व विश्वास को वयां कर रहा है. साथ ही छठ गीतों ने माहौल को पूरी तरह से भक्तिमय बना दिया है.




मूलत: सूर्य षष्ठी व्रत होने के कारण इसे छठ कहा गया है. यह पर्व वर्ष में दो बार मनाया जाता है. चैत्र शुक्ल पक्ष षष्ठी को मनाये जाने वाले छठ पर्व को चैती छठ व कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाये जाने वाले पर्व को कार्तिकी छठ कहा जाता है. पारिवारिक सुख-समृद्धी तथा मनोवांछित फल प्राप्ति के लिए यह पर्व मनाया जाता है और स्त्री और पुरुष समान रूप से इस पर्व को मनाते हैं. लोक परम्परा के अनुसार सूर्यदेव और छठी मइया का सम्बन्ध भाई-बहन का है. लोक मातृका षष्ठी की पहली पूजा सूर्य ने ही की थी. यह पर्व चार दिनों का होता है और भैयादूज के तीसरे दिन से यह आरम्भ हो जाता है. पहले दिन सेन्धा नमक, घी से बना हुआ कद्दू की सब्जी और अरवा चावल प्रसाद के रूप में ली जाती है और इसके अगले दिन से उपवास आरम्भ हो जाता है. इस दौरान व्रत करने वाले दिनभर अन्न-जल त्याग कर रात्रि में खीर बनाकर पूजा करने के उपरान्त प्रसाद ग्रहण करते हैं. जिसे खरना कहा जाता हैं. तीसरे दिन डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य यानी दूध अर्पण किया जाता है और महापर्व के अंतिम दिन उगते हुए सूर्य को अर्घ्य चढ़ाने के उपरांत महापर्व संपन्न हो जाता है. छठ में पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है. जिसमें लहसून, प्याज वर्जित रहता है.

लोक आस्था का महापर्व

छठ पूजा चार दिवसीय लोक आस्था का महापर्व है. इसकी शुरुआत कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को तथा समाप्ति कार्तिक शुक्ल सप्तमी को होती है. इस दौरान व्रतधारी लगातार 36 घंटे का व्रत रखते हैं. इस क्रम पानी भी ग्रहण नहीं किया जाता है.

नहाय खाय 31 अक्टूबर को

पहला दिन कार्तिक शुक्ल चतुर्थी ‘नहाय-खाय’ (कद्दु-भात) के रूप में मनाया जाता है. इसके पूर्व घर की सफाई कर उसे पवित्र किया जाता है. इसके पश्चात छठव्रती स्नान कर पवित्र तरीके से बने शुद्ध शाकाहारी भोजन ग्रहण कर व्रत की शुरुआत करते हैं. घर के सभी सदस्य व्रती के भोजनोपरांत ही भोजन ग्रहण करते हैं. भोजन के रूप में कद्दू-दाल और चावल ग्रहण किया जाता है. दाल चने की होती है।




खरना  01 नवम्बर को

दूसरे दिन कार्तिक शुक्ल पंचमी को व्रतधारी दिनभर का उपवास रखने के बाद शाम को प्रसाद ग्रहण करते हैं. इसे ‘खरना’ कहा जाता है. खरना का प्रसाद लेने के लिए आस-पास के सभी लोगों को निमंत्रित किया जाता है. प्रसाद के रूप में गन्ने के रस में बने हुए चावल की खीर के साथ दूध, चावल का पिट्ठा और घी चुपड़ी रोटी बनाई जाती है. इसमें नमक या चीनी का उपयोग नहीं किया जाता है. इस दौरान पूरे घर की स्वच्छता पर विशेष ध्यान रखा जाता है. नए मिट्टी के चूल्हे एवं आम की लकड़ी पर खरना का प्रसाद तैयार किया जाता है.

अस्ताचलगामी सूर्य अर्घ्य 2 नवम्बर को

तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को दिन में छठ का प्रसाद बनाया जाता है. प्रसाद के रूप में ठेकुआ (टिकरी) के अलावा चावल का लड्डू (लड़ुआ) बनाया जाता है. इसके अलावा चढ़ावा के रूप में लाया गया सांचा और फल भी छठ प्रसाद के रूप में शामिल होता है.

शाम को बांस की टोकरी में अर्घ्य का सूप सजाया जाता है और व्रती के साथ परिवार तथा पड़ोस के सारे लोग अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने घाट की ओर चल पड़ते हैं. आजकल छत और घर के आंगन में अस्थायी रूप से तैयार घाट पर भी सूर्य को अर्घ्य  दिया जाने लगा है.

उदीयमान सूर्य को अर्घ्य 3 नवंबर को

चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उदीयमान सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है. इस क्रम में संध्या अर्घ्य देने की जगह पर पुनः इकट्ठा होते हैं और पुनः अर्घ्य देने की प्रक्रिया की पुनरावृत्ति होती है. इसके साथ ही लोक आस्था का महापर्व संपन्न हो जाता है. जिसके पश्चात् व्रती शरबत पीकर तथा प्रसाद ग्रहण करती है. जिसे पारण या परना कहा जाता है.

व्रत के दौरान सुखद शैय्या का त्याग

छठ व्रत एक कठिन तपस्या की तरह है. व्रत रखने वाले को परवैतिन कहा जाता है. चार दिनों के इस व्रत में व्रती को लगातार उपवास करना होता है. इस दौरान भोजन के साथ ही सुखद शैय्या का भी त्याग किया जाता है. पर्व के लिए बनाये गये कमरे में व्रती फर्श पर कम्बल या चादर के सहारे ही रात बिताते हैं. पर्व के दौरान व्रत करने वाले ऐसे कपड़े पहने हैं जिसमें सिलाई नहीं की गयी होती है. ऐसे में महिलाएं साड़ी और पुरुष धोती पहनकर छठ करते हैं. ‘छठ पर्व को शुरू करने के बाद इसे सालों-साल तब तक करना होता है, जब तक कि अगली पीढ़ी की किसी विवाहित महिला इसके लिए तैयार न हो जाए.




संस्कृति की अनुपम छटा

छठ पूजा का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष इसकी सादगी, पवित्रता और लोकपक्ष है. भक्ति और आध्यात्म से परिपूर्ण इस पर्व में बांस निर्मित सूप, टोकरी, मिट्टी के बर्त्तनों, गन्ने का रस, गुड़, चावल और गेहूं से निर्मित प्रसाद और सुमधुर लोकगीत जीवन की भरपूर मिठास का प्रसार करता है. शास्त्रों से अलग यह जन सामान्य द्वारा अपने रीति-रिवाजों के रंगों में गढ़ी गयी उपासना का पर्व है. इसके केंद्र में वेद, पुराण जैसे धर्मग्रन्थ न होकर किसान और ग्रामीण जीवन है. इस व्रत के लिए न विशेष धन की आवश्यकता होती है और न पुरोहित या गुरु के अभ्यर्थना की. जरूरत पड़ती है तो पास-पड़ोस के सहयोग की जो अपनी सेवा के लिए सहर्ष और कृतज्ञतापूर्वक तैयार रहते हैं. पर्व के मद्देनजर के लोग स्वयं अपने सामूहिक अभियान संगठित करते हैं. नगरों की सफाई, व्रतियों के गुजरने वाले रास्तों का प्रबन्धन, तालाब या नदी किनारे अर्घ्य दान की उपयुक्त व्यवस्था के लिए सरकार के सहायता की राह नहीं देखा जाता है. इस उत्सव में खरना के प्रसाद से लेकर अर्ध्यदान तक समाज की अनिवार्य उपस्थिति बनी रहती है. इस दौरान लोग अपने दैनिक जीवन की मुश्किलों को भूलकर सेवा और भक्ति-भाव से किये गये सामूहिक कर्म का विराट और भव्य प्रदर्शन करते हैं.


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